देहरादून की पहाड़ियों से थोड़ा आगे, जंगलों के बीच एक छोटा-सा गाँव था—कनात. आज उस गाँव में मुश्किल से पाँच–छह लोग रहते हैं, पर 20–25 साल पहले वहाँ ज़िंदगी बसती थी। लोग शाम होते ही अपने घरों में घुस जाते थे, क्योंकि रात में किसकी परछाई चल रही है और किसके पाँव हवा में लटके हुए हैं, इसका पता ही नहीं चलता था।
शुरुआत—एक अजीब आवाज़
कहानी शुरू होती है सत्यम नाम के लड़के से। दिल्ली में पढ़ाई कर रहा था, छुट्टियों में पहली बार अपने दादा-दादी से मिलने कनात आया।
पहली शाम सब ठीक था, पर रात होते ही उसे लगा जैसे बाहर कोई धीरे-धीरे चल रहा है… ठप… ठप… ठप…
पर चाल अजीब थी—हर कदम के बीच इतना ज्यादा अंतर… जैसे किसी बहुत बूढ़े इंसान के पैर हों… या किसी ऐसी चीज़ के… जिसे चलना आता न हो।
सत्यम ने खिड़की से झाँका—कोई नहीं।
दादी की चेतावनी
सुबह उसने दादी से पूछा,
“दादी, रात को कौन चलता है गाँव में? कुत्ता-वुत्ता होगा?”
दादी ने चूल्हे की आग में लकड़ी डालते हुए धीमी आवाज़ में कहा,
“ना बेटा… वो कुत्ता नहीं होता… यहाँ एक चीज़ है, जो चलती तो इंसानों की तरह है, पर इंसान नहीं है। और उसकी चाल बस उसी को सुनाई देती है, जो गाँव में नया होता है…”
सत्यम हँस पड़ा, “दादी प्लीज़, मुझे मत डराओ।”
दादी ने आगे कुछ नहीं कहा, पर उनके हाथ थोड़े काँप रहे थे।
दूसरी रात – पहली झलक
रात के लगभग ढाई बजे। सत्यम का नींद खुली।
दरवाज़े के नीचे से किसी के पैर दिखाई दिए—उल्टे पैर।
मतलब एड़ियाँ आगे, उँगलियाँ पीछे।
पैर धीरे-धीरे खिसक रहे थे, जैसे कोई ज़मीन सूंघते हुए चल रहा हो।
सत्यम का गला सूख गया। वो चिल्लाना चाहता था—आवाज़ नहीं निकली।
पैर अचानक रुक गए… और फिर दरवाज़े पर चार बार दस्तक दी।
ठक… ठक… ठक… ठक…
सत्यम भागकर दादी के कमरे में गया, पर दरवाज़ा अंदर से बंद था। तभी उसे दादी की आवाज़ सुनाई दी—
“सत्यम, दरवाज़े से दूर रहना… वो तेरे नाम से बुलाएगी…”
पर बाहर तो कोई उसका नाम ही नहीं जानता था।
तीसरी रात – बुलाई किसने?
इस रात चाँद बादलों में छिपा था। पूरा गाँव सन्नाटा।
सत्यम फिर से जागा क्योंकि खिड़की के बाहर किसी ने हँसकर उसका नाम लिया—
“सत्यम… ओओओ सत्यााम…”
आवाज़ किसी औरत की थी, पर टेढ़ी, खुरदुरी, जैसे किसी का गला फटा हुआ हो।
उसने धीरे से खिड़की खोली… बस हल्का सा।
बाहर एक औरत खड़ी थी—बाल इतने लंबे कि जमीन को छू रहे थे। पर चेहरा नहीं दिख रहा था।
औरत धीरे-धीरे सिर उठाने लगी…
सत्यम समझ गया, ये इंसान नहीं है।
उसने खिड़की पटक कर बंद कर दी, और दादा के कमरे की ओर भागा।
दादा का सच
दादा जाग गए थे। उन्होंने सत्यम को कसकर पकड़ लिया और बोले—
“तूने उसे देख लिया?
वो इसी गाँव की थी… 40 साल पहले।
उसका नाम था—वंशी।
सुंदर थी, पर किसी तांत्रिक ने उसे पकड़कर पहाड़ी पर बाँध दिया था।
मरते वक्त वो हँस रही थी।
और तभी से… उसके उल्टे पैर गाँव में घूमते रहते हैं।
वो नए लोगों को ही पहले दिखाई देती है…”
सत्यम डर से काँप गया।
दादा ने लाल धागा उसके हाथ में बाँधा और कहा,
“जो भी हो जाए, इसे मत उतारना। और सुबह होने तक घर से बाहर मत निकलना।”
आखिरी रात – सामना
सत्यम पूरी रात जागता रहा।
लगभग 3 बजे अचानक घर की छत पर कुछ भारी चीज़ कूदी।
घर हिल गया।
फिर खिड़की अपने-आप खुल गई।
अंधेरे में वही औरत खड़ी थी—इस बार उसका चेहरा साफ दिख रहा था।
चेहरा नहीं… बस एक काली गहराई, जैसे किसी ने उसके चेहरे पर छेद कर दिया हो।
उसकी आँखों की जगह दो धधकते लाल गोले… और मुँह इतना बड़ा जैसे किसी को पूरा निगल जाए।
उसने फटे हुए स्वर में कहा—
“सत्यम… तुझे तो मेरी चाल सुनाई देती है…
मेरे साथ चल…”
सत्यम चिल्लाया, पर आवाज़ बाहर नहीं निकली।
वो अंदर घुसने ही वाली थी कि दादा ने कमरे का दरवाज़ा खोलकर राखी हुई लाल मिट्टी उड़ाई।
औरत ऐसे चीखी जैसे कोई जिंदा जला दिया गया हो।
वो पीछे हटती हुई धुएँ में बदल गई…
पर जाते-जाते बोली—
“सत्यम… अगली बार तू बच नहीं पाएगा…”
सुबह – सन्नाटा और सीक्रेट
सूरज निकलते ही सब सामान्य लग रहा था।
सत्यम ने दादा-दादी से कहा कि वो उसी दिन वापस दिल्ली जा रहा है।
जब वो निकल रहा था, दादी ने धीरे से उसके हाथ में एक पुरानी लोहे की कील रखी और बोली—
“बेटा… अगर तेरी परछाई कभी तुझसे उल्टी दिशा में चलने लगे…
तो समझना कि वंशी तेरे पास आ गई है।”
सत्यम आज भी कभी-कभी कहता है—
उस रात के बाद उसे कभी कोई उल्टे पैर वाला तो नहीं दिखा…
पर रात में धीरे-धीरे चलने की आवाज़… आज भी कभी-कभी आती है।