श्रापित जंगल E-2 | Bhayanak bhutiya kahani | Hindi story my

                       

श्रापित जंगल E-2

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हम लोग अपने सामान वगैरा उठाकर जंगल से वापस निकलने लगे पर यह तो किसी को भी याद नहीं था की किस तरफ से अंदर आए थे और अब किस तरफ से बाहर जाए .


पर जो भी है अब बाहर कैसे भी निकलना हैं हम बस यही सोच रहे थे क्यूंकि हम 1 बजे के आस पास से इस जंगल के अंदर हैं और अब समय लगभग 4:00 या 4:30 बज रहा होंगा यानी हमें काफी टाइम हो गया था जंगल में घनी झाड़ी बड़े-बड़े पेड़ और अजीब अजीब जानवरों की आवाज हर तरफ से इस जंगल में आ रही थी पर हम उन सभी आवाजों को अनसुना कर आगे बढे जा रहे थे अब हमें चलते चलते हैं लगभग 2 घंटे से भी ज्यादा का समय हो गया था। पर अभी भी हम जंगल के अंदर ही थे मैं अब उस बात पर पछता रहा था कि जब हम जंगल के अंदर जाते समय समय मैं जो सोच रहा था कि हम बाहर कैसे निकलेंगे यह बात मैंने किसी को क्यों नहीं बताई थी।


बस इसी बात का मुझे पछतावा था कि मुझे पहले ही संदेह लग रहा था कि इतने घने जंगल के अंदर हम बिना रास्ते के जा तो रहे हैं पर हम बाहर आएंगे कैसे यह हम चारो में से कोई नहीं सोच रहा था अब घड़ी में लगभग 6:30 बज रहे थे जंगल में भी काफी अंधेरा सा होने लगा था। दिन के समय तो यह जंगल हरा-भरा काफी प्यारा लग रहा था लेकिन अब जैसे-जैसे अंधेरा होते जा रहा था वैसे वैसे इस जंगल का रंग रूप भी बिल्कुल बदलता जा रहा था। चलते चलते अब हम काफ़ी थक चुके थे और भूख भी बहुत लग रही थी लेकिन इस जंगल से बाहर भी तो निकलना था इसलिए हम बस चलते जा रहे थे।


पर तभी अखिल ने कहा - भाइयो जो होगा देखा जाएगा एक काम करते हैं भाई लोगों पहले थोड़ी देर यही बैठते हैं और कुछ खा लेते हैं खाने के लिए सामान तो वैसे भी हम लेकर आए हुए हैं क्योंकि अब भूख भी बहुत लग रही हैं उसके बाद चलेंगे बाहर तो निकल ही जाएंगे जब अंदर आ गए हैं तो बाहर भी निकल जाएंगे - अखिल के इतना कहने के बाद हम चारो वही बैठ गए क्यूंकि हमें इतना तो विश्वास था की हम बाहर निकल ही जायेंगे। हम चारों वागी बैठे हुए थे की तभी मैंने देखा कि लगभग 3 से 4 औरतें अपने सर पर लकड़ियों का गट्ठा लिए इसी तरह आ रही थी मैंने खुशी खुशी अपने दोस्तों से कहा - अबे भाई मिल गया बाहर निकलने का रास्ता वो देखो लकड़ी लेकर औरतें आ रही हैं यह बाहर ही तो निकलेंगे इन्हीं के साथ निकल जाते हैं -


हम चारों जो डर और घबराए हुए थे पर अब उन औरतों को देख हमने थोड़ा चैन की सांस ली थोड़ी देर में वो सभी औरतें जो लकड़ी लेकर आ रही थी हमारे पास तक पहुंच गई तभी मैंने उनसे कहा - आप लोग बाहर जा रहे हो क्या - पर उन चारों में से किसी ने भी कोई जवाब नहीं दिया फिर मैंने कहा - हम इस जंगल में घूमने आए थे और अब बाहर नहीं निकल पा रहे हैं आप लोग बाहर जा रहे हो तो हम भी आपके साथ ही निकल सकते हैं क्या - लेकिन मेरे इतना कुछ बोलने के बाद भी उनमें से किसी ने भी कोई जवाब नहीं दिया और वो हमें अनसुना कर आगे की तरफ जाने लगी ।


पर फिर हमने भी सोच लिया कोई बात नहीं हम इनके थोड़ा पीछे पीछे ही चलते चलते बाहर निकल जाएंगे क्योंकि जाएंगी तो यह भी बाहर ही जंगल में तो रहेंगे नहीं। फिर उसके बाद हम चारों धीरे धीरे उनके पीछे ही चल रहे थे तभी उनमे से एक औरत जो पीछे थी तब उसने घूम कर पीछे देखा और एक बहुत भारी आवाज में कहा - घूमने कौन आता है जंगल में यह घूमने की जगह नहीं है यह तो मरने की जगह है - इतना ही कहा उस औरत ने और हम तुरंत उसी जगह खड़े हो गए।


अब सभी वो औरतें भी वही रुक गई जो थोड़ी देर पहले कोई भी जवाब नहीं दे रही थी वो औरत फिर एक साथ बोली - यहाँ कोई नहीं आता तुम लोग कैसे आए - फिर मैंने कहा - बहन जी हम घूमने आए थे जंगल में मगर कोई नहीं आता तो आप लोग इस जंगल में क्यों आते हो लकड़ी लेने - मेरे इतना बोलने के बाद वो सभी औरतों ने हम लोगों की तरफ देखी और फिर कहा - श्रापित जंगल है यह श्रापित जंगल यहाँ कोई नहीं बचता है जो आएगा यहाँ वो मरेगा - इतना कहकर वो औरतें लकड़ियां लेकर आगे की तरफ चलने लगी। तभी जतिन ने कहा - एक काम करते हैं हम अभी यहीं रुक जाते हैं इन पागल औरतों को जाने दो पहले यहाँ से बाहर तो फिर हम भी निकल जाएंगे जंगल ही तो है अभी नहीं तो 2 घंटे बाद -


लेकिन सच में डर तो हम सब लोगों को लग ही रहा था पर थोड़ी देर में मैंने कहा - यार वो औरतें कहाँ गई अब अब तक तो दिखाई दे रही थी पर अब कहीं नजर नहीं आ रही - मेरे इतना बोलने के बाद हम चारों आगे की तरफ से थोड़ा तेज तेज चलने लगे लेकिन काफी देर चलने के बाद भी जब वो औरते हमें कहीं नहीं नजर आई तब आशीष ने जतिन पर चिल्लाते हुए कहा - यार जतिन तेरी चक्कर से रुक गए हम नहीं तो उनके पीछे पीछे ही निकल जाते तो कम से कम बाहर तो निकल जाते उनको शायद रास्ता पता था -


हम सब आपस में बहस कर ही रहे थे की तभी थोड़ा आगे से किसी के बहुत तेज तेज रोने तड़पने और कराने की आवाज आने लगी ऐसा लग रहा था कि कोई जोर जोर से चीख रहा है दर्द में हमने सोचा हो ना हो शायद वही औरते ही होंगी और जरूर किसी मुसीबत फाश गई होंगी। जंगल घना था ऊपर से अंधेरा भी हो चुका था कहीं किसी जानलेवा जानवर ने अटैक कर दिया होगा। यह सब सोच रहे थे और जिधर से आवाज आ रही थी उस तरफ भाग भी रहे थे काफी देर तक भागते भागते जतिन,आशीष और अखिल एक पेड़ के नीचे देखने चले गए क्योंकि आवाज उधर से भी आ रही थी और आवाज सामने की तरफ से भी आ रही थी इसलिए मैं अकेला ही भागते भागते सामने झाड़ियों की तरफ चला गया।


पर तभी मुझे अखिल ने आवाज लगाई - संतोष रुको संतोष रुक जाओ - लेकिन उन औरतों की आवाज मुझे साफ-साफ सुनाई दे रही थी इसलिए मैं अपने दोस्तों की बात अनसुनी करते हुए ही लगातार झाड़ियों की तरफ भागता हुआ जा रहा था और एक गड्ढा था उस में उतर कर देखने लगा। पाए मेरे वहाँ पहुंचते ही मानो वो सभी आवाजें भी आना बंद हो गई अब किसी के भी तड़पने या चीखने की आवाज मुझे सुनाई नहीं दे रही थी। पर मैं उधर अकेला ही था मेरे तीनों दोस्त अभी उधर ही पेड़ के पास थे शायद मैं इधर उधर ही देख रहा था फिर मैं जैसे ही उस गड्ढे से बाहर निकलने को हुआ तभी पिछे से किसी ने मेरे सर पर कुछ फेंक कर बड़ी तेज मारा और मैं थोड़ा और अंदर झाड़ियों में जाकर गिरा गया।


फिर उसके बाद मैं अपने आप को संभाल कर जैसे ही उठा तो तो मेरे होश उड़ गए मुझे ऐसा लगने लगा जैसे मेरी सांस अटक गई हो मेरी जुबान हलक नहीं में रुक गई हो क्योंकि मैंने देखा उन झाड़ियों के पास अखिल,आशीष और जतिन की अलग-अलग टुकड़ों में लाश पड़ी हुई थी।


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इस कहानी के लेखक हैं - रामचंद्र यादव


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